ॐ ब्राम्हणोंअस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत ! ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्या शूद्रों अजायत !! १२ ब्राम्हण इसका मुख था ,क्षत्रिय दोनों भुजाये बना ,इसकी जो दोनों जंघाए थी वही वैश्य हुई और पैरों से शुद्र जन्मा ,द्रव्य चढ़ाए ! विशेष ~ ध्यान देने की बात है ,की केवल शूद्र ही जन्मता है ,क्योकि उत्पतिकाल में भजन ही शूद्र स्तर का होता है,वैश्य ,क्षत्रिय और ब्राम्हण स्तर विकास से हो जाते है,जो भजन नही करता ,वह तो शूद्र भी नहीं है,वह जड़ जीव मात्र है,साधन की इन चार श्रेणियों को पार कर लेने पर साधक ब्राम्हण भी नहीं रह जाता " न ब्राम्हणों न क्षत्रिय :न वैश्यों न शूद्र: चिदानन्द रूपों शिवो केवलोंअहम् " की स्थिति आ जाती है, यह गलत बात है की इन सोपानों की नक़ल करके समाज में चार जातियां भी इन नामो से बन गयी है,और इसी प्रथा की दुहाई देकर शूद्र को सबसे निकृष्ट माना जाता है,क्योंकि वह चरण से पैदा हुआ ,विचारणीय है की वह परमपुरुष तो सर्वत्र हाथ,पैर और मुँह वाला था ,जहाँ पैर था क्या वहाँ सिर नहीं था ? एक ही पाद में तो सम्पूर्ण सृष्टि है,तब तो सभी शूद्र हो गए ,जी चरणों से पतितपावनी गंगा जी निकली ,उसी चरण से निकला शूद्र इतना अपवित्र कि छू दे तो धर्म नष्ट हो जाए ,परम पुरुष ही मर जाय! कितनी भ्रान्ति है !वास्तविकता को छिपाकर मनुस्मृतिकार कहते है,की जन्म तो सभी शूद्र होते है,हाँ ~संस्कार करने से ब्राम्हण बन जाते है,और संस्कार के नाम पर यज्ञोपवीत पहनाकर दो-चार मन्त्र पढ़ा देते है,यदि इसी प्रकार ब्राम्हण बनते है,तो सबको ब्राम्हण बनाकर अपनी संख्या क्यों नहीं बढ़ा लेते ? वस्तुत;वे संस्कार भी नहीं है,संस्कार का आशय है, - " स अंश आकार " उस परमात्मा का आंशिक आकार डाल देना ,उसकी चाह पैदा कर देना ,इतने के लिये ही कर्मकाण्ड की सार्थकता है,अश्तु, वेद के नाम पर मानव - मानव में दरार न डाले ,परमात्मा सब में है और सभी इस दृष्टि से समान है,सभी उसे पाने के हक़दार है कृपा गुरुदेव जी की ..............................................................
भारतीय वर्ण व्यवस्था/Indian Varna System
ॐ ब्राम्हणोंअस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत ! ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्या शूद्रों अजायत !! १२ ब्राम्हण इसका मुख था ,क्षत्रिय दोनों भुजाये बना ,इसकी जो दोनों जंघाए थी वही वैश्य हुई और पैरों से शुद्र जन्मा ,द्रव्य चढ़ाए ! विशेष ~ ध्यान देने की बात है ,की केवल शूद्र ही जन्मता है ,क्योकि उत्पतिकाल में भजन ही शूद्र स्तर का होता है,वैश्य ,क्षत्रिय और ब्राम्हण स्तर विकास से हो जाते है,जो भजन नही करता ,वह तो शूद्र भी नहीं है,वह जड़ जीव मात्र है,साधन की इन चार श्रेणियों को पार कर लेने पर साधक ब्राम्हण भी नहीं रह जाता " न ब्राम्हणों न क्षत्रिय :न वैश्यों न शूद्र: चिदानन्द रूपों शिवो केवलोंअहम् " की स्थिति आ जाती है, यह गलत बात है की इन सोपानों की नक़ल करके समाज में चार जातियां भी इन नामो से बन गयी है,और इसी प्रथा की दुहाई देकर शूद्र को सबसे निकृष्ट माना जाता है,क्योंकि वह चरण से पैदा हुआ ,विचारणीय है की वह परमपुरुष तो सर्वत्र हाथ,पैर और मुँह वाला था ,जहाँ पैर था क्या वहाँ सिर नहीं था ? एक ही पाद में तो सम्पूर्ण सृष्टि है,तब तो सभी शूद्र हो गए ,जी चरणों से पतितपावनी गंगा जी निकली ,उसी चरण से निकला शूद्र इतना अपवित्र कि छू दे तो धर्म नष्ट हो जाए ,परम पुरुष ही मर जाय! कितनी भ्रान्ति है !वास्तविकता को छिपाकर मनुस्मृतिकार कहते है,की जन्म तो सभी शूद्र होते है,हाँ ~संस्कार करने से ब्राम्हण बन जाते है,और संस्कार के नाम पर यज्ञोपवीत पहनाकर दो-चार मन्त्र पढ़ा देते है,यदि इसी प्रकार ब्राम्हण बनते है,तो सबको ब्राम्हण बनाकर अपनी संख्या क्यों नहीं बढ़ा लेते ? वस्तुत;वे संस्कार भी नहीं है,संस्कार का आशय है, - " स अंश आकार " उस परमात्मा का आंशिक आकार डाल देना ,उसकी चाह पैदा कर देना ,इतने के लिये ही कर्मकाण्ड की सार्थकता है,अश्तु, वेद के नाम पर मानव - मानव में दरार न डाले ,परमात्मा सब में है और सभी इस दृष्टि से समान है,सभी उसे पाने के हक़दार है कृपा गुरुदेव जी की ..............................................................
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