वास्तविक आत्मा है,चैतन्य सदा विद्यमान रहता है,समय अवधि समाप्त होने पर केवल देह कुछ समय के लिए विलीन हो सकती है,मुख्य प्रश्न है,"मै कौन हूँ"अगर मै अपनी आत्मा को न जानूँ तो अन्य प्रश्न अप्रासंगिक हो जाते है,मुझे स्वयं की परिभाषा करनी चाहिए ,मुझे स्वयं के बारे में स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए भगद्गीता के पूरे दूसरे अध्याय में इसी विषय पर विचार किया गया है,उसमे हमें शिक्षा डी गई है कि हम स्वरूपतः नित्य ,शाश्वत ,अबिनाशी आत्मा है,यही हमारे समग्र अस्तित्व को प्रभावित करती है,लेकिन हम उसे देखते नही ,हमें उसका बोध नही होता ! मुझे तुम्हारा बोध है,मुझे वस्तुओं का वोध है,लेकिन मुझे आत्मा का जरा भी बोध नही है,हम और हमारे वास्तविक चैतन्यस्वरुप के बीच क्या बाधा है?यह "चित"ही बाधक है,अतः हमारे वास्तविक स्वरुप से हमें पृथक करने वाले आवरण को दूर करने हेतु ध्यान ,गहरे ध्यान ,का महान तीव्रता-पूर्वक अभ्यास करना चाहिए !सभी साधना पद्धतिओं का यही उद्देश्य है,अनेक पैगम्बर और संतों ने तथा अनेक धर्मों ने सदियों से इस वास्तविक आत्मा इस उच्चतर आत्मा की बात कही है,अतः ध्यान का उद्देश्य हमारे वास्तविक स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करना है,यही चेतना का उच्चतम प्राप्तव्य स्तर है,इसके बाद और कुछ नहीं बचता क्योंकि तथाकथित "अहं "विलुप्त हो जाता है,यह मन के साथ लीन हो जाता है,चित्त शान्त हो जाता है,जब तक मन स्वभावतः क्रियाशील रहता है,तब तक उसे सतत चित्रों का बोध होता रहता है,फिल्म के समाप्त होने पर केवल बिना चित्रों का खाली पर्दा बचा रहता है,इस बात को हम इस तथ्य से समझ सकते है,कि हमारी वास्तविक आत्मा प्रकाश के समान है,हम इस प्रकार का उपयोग सदा सभी स्तरों पर कर सकते है ! ध्यान और उसके द्वारा हम क्या हासिल कर सकते है,इसकी एक अच्छी व्याख्या है,सर्वप्रथम तो यह कहा जाता है,की हम सभी में महान शक्ति विद्यमान है,तथा हम इस शक्ति को व्यर्थ गवां देते है,कभी-कभी हम इस शक्ति शक्ति के अपव्यय को स्वीकार करते है,कभी-कभी हम इसे स्वीकार नही करते क्योकि हम इन्द्रिय विषयों में डूबे रहते है,योगिगण प्रायः सबसे दूर एकांत में रहते है,हम पर्वतीय गुफाओं अथवा वनों में बिलकुल अकेले रहते है,जिससे शारीरिक और मानसिक दोनों ही प्रकार की शक्ति का अपव्यय रोका जा सके ! जय श्रीहरि: !
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