मन, बचन और कर्म से -इन तीनों से यदि मन का भाव ठीक है ,तो बचन और कर्म से चूक भी जायें तो अन्तर्यामी श्री रामचन्द्र जी उस जन के मन के ही दशा का ही स्मरण करके उसके बचन और कर्म की चूक पर ध्यान नहीं देते- " बचन करम से जो बनै ,सो बिगरे परिनाम ! तुलसी मन से जो बनै ,बनी बनाई राम !!" अर्थात -बचन और कर्म से जो बाहरी बनावट होती है ,दिखावा आचार-विचार होता है ,मन में कपट रहने से परिणाम बिगड़ेगा ही जैसे-"उघरहिं अन्त न होई निबाहूँ , कालनेमि जिमि रावन राहूँ "तथा जिनका मन शुद्ध होता है ,उनके बचन द्वेष की प्रतिकूलता कदापि बाधक नहीं सिद्ध होती ,- "किये कुबेषु साधु सनमानू , जिमि जग जामवन्त हनुमानू " यहाँ पर यह चौपाई तो यही सिद्ध कर रही है कि जामवंत और हनुमान जी कुभेषु किये है यह उनका वास्तविक बेश नहीं है ,यह भेष बनाया गया है, " मोहि कपट छल-छिद्र न भावा ''
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