श्रीराम जी को चौदह वर्ष (14 वर्ष) का ही वनवास क्यों माँगा कैकेयी ने जानिए पूरा सच ? तुलसीकृत रामचरितमानस के अयोध्या काण्ड में है - सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का, देहु एक वर भरतहि टीका ! मागंहूँ दूसर बर कर जोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरि ! तापस वेष बिसेषि उदासी, चौदह बरिस रामु बनबासी !! कैकेयी ने इस प्रकार राजा दशरथ से वर माँगे ,किन्तु "मन्थरा" ने कैकेयी से "वनवास "के सम्बन्ध में कोई निश्चित समय नहीं बताया था,न तब तक तपस्वी-वेष तथा विशेष उदासीन रहने की कोई शर्त लगाने को कहा था,जैसा कि "रामायण"में है- दुई वरदान भूप सन थाती, मागंहूँ आजु जुड़ावहु छाती !!
यहाँ पर प्रश्न बनता है ,कि कैकेयी ने सिर्फ चौदह वर्ष का ही वनवास क्यूँ माँगा ? जीवन भर या फिर चौदह वर्ष से काम क्यों नहीं माँगा ?और वनवास के साथ तपस्वी-वेष और विशेष उदासी रहने की शर्त कैकेयी ने क्यों माँगी ? " सुतहु राजु रामहि बनबासू , देहु लेहु सब सवति हुलासू !! तापस-वेष और विशेष उदासीनता के साथ चौदह वर्ष का "वनवास"स्वयं कैकेयी ने ही माँगा था,किन्तु ऐसा करने के लिए उसी "गिरा"(सरस्वती )ने उसके अन्दर प्रेरणा की थी,जिस "गिरा"ने मन्थरा की बुद्धि फेरकर उससे दो वर माँगने के लिए उकसाया था,इसका प्रमाण उसी रामायण में ही मौजूद है- गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि ! सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि !! "सुरमाया बस "का तत्यपर्य ही "गिरा" (सरस्वती ) द्वारा बुद्धि का बदला जाना है,पुनः "भारद्वाज ऋषि तो स्पष्ट ही श्री भरत जी से कह रहे है कि- तात कैकेइहि दोसु नहि गई गिरा मति धूति !! इसलिए यह स्पष्ट हो जाता है कि सरस्वती जी की ही प्रेरणा से ऐसा वर कैकेयी ने माँगा था, केवल चौदह वर्ष की प्रेरणा इस कारण हुई कि रावण की आयु में अब केवल चौदह वर्ष ही शेष रह गए थे,
इससे अधिक मांगने की कोई जरूरत नहीं थी,और इससे कम तो माँगा ही नहीं जा सकता था,तापस-वेश और विशेष उदासी रहने की शर्त रखने का उदेश्य यह था कि मुनि और तपस्वियों पर ही धर्माघात करने के लिए "रावण "तथा अन्य राक्षसों का विशेष आक्रमण हुआ करता था-निसिचर निकर सकल मुनि खाए,सुनि रघुवीर नयन जल छाए!! इसीलिए सोचा गया कि जब श्रीराम जी भी तपसी (साधु)वेश में रहेंगे ,तब अवश्य ही रावण इनसे भी अभद्रता करेगा ही,इनके अतिरिक्त देवताओं और साधु-तपस्वियों में प्राकृतिक सम्बन्ध है, सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग !! इस तापस-वेश के साथ-साथ उदासीन वृत्ति .प्रपंच भी होना चाहिए तभी उसकी गिनती साधु-समाज में हो सकती है,असुरो को भी सच्चे साधुओं की ही खोज रहती है,इसीलिए देवताओं की जरूरत को दृष्टि में रखकर ऐसा वर माँगने की प्रेरणा की गई !
यहाँ पर प्रश्न बनता है ,कि कैकेयी ने सिर्फ चौदह वर्ष का ही वनवास क्यूँ माँगा ? जीवन भर या फिर चौदह वर्ष से काम क्यों नहीं माँगा ?और वनवास के साथ तपस्वी-वेष और विशेष उदासी रहने की शर्त कैकेयी ने क्यों माँगी ? " सुतहु राजु रामहि बनबासू , देहु लेहु सब सवति हुलासू !! तापस-वेष और विशेष उदासीनता के साथ चौदह वर्ष का "वनवास"स्वयं कैकेयी ने ही माँगा था,किन्तु ऐसा करने के लिए उसी "गिरा"(सरस्वती )ने उसके अन्दर प्रेरणा की थी,जिस "गिरा"ने मन्थरा की बुद्धि फेरकर उससे दो वर माँगने के लिए उकसाया था,इसका प्रमाण उसी रामायण में ही मौजूद है- गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि ! सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि !! "सुरमाया बस "का तत्यपर्य ही "गिरा" (सरस्वती ) द्वारा बुद्धि का बदला जाना है,पुनः "भारद्वाज ऋषि तो स्पष्ट ही श्री भरत जी से कह रहे है कि- तात कैकेइहि दोसु नहि गई गिरा मति धूति !! इसलिए यह स्पष्ट हो जाता है कि सरस्वती जी की ही प्रेरणा से ऐसा वर कैकेयी ने माँगा था, केवल चौदह वर्ष की प्रेरणा इस कारण हुई कि रावण की आयु में अब केवल चौदह वर्ष ही शेष रह गए थे,
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