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जय श्रीहरि:

रामायण में राम-रावण का एक ऐसा युद्ध जिसमे राम की हार हो रही थी तब बिभीषण ने पूछा ?

जब "रावण" युद्धस्थल में आया तो बिभीषण को बड़ी चिन्ता हुई , उसके पराक्रम का स्मरण कर वह विचार करने लगे,कि " रावनु रथी बिरथ रघुवीरा "  मानस ,6/79/1) रावण रथ पर आरूढ़ है ,भगवान राम विरथ है,उनके पाँव में "चरणपादुका' भी नहीं है, तो इस भयंकर शत्रु को कैसे जीतेंगे ?
..याद रखें ,यहाँ गोस्वामी तुलसी दास जी के शब्दों में "राम"एवं रथ आदि का चित्रण प्रतीकों के रूप में प्रत्यक्ष है,यहाँ पर मोह ही "रावण" एवं उसका रथ ही मोह का प्रसार है,हम मोहमयी दृष्टि से जिधर भी देखें वह वहीँ  गति पकड़ने लगता है,बह यही वह रथ है,जो मोह को अपने में आसीन कर घुमाता रहता है,ऐसा विचार कर बिभीषण बोले- "नाथ न रथ नहि तन पद त्राना ! केहि बिधि जितब वीर बलवाना!! (मानस-6/79/3 ) भगवन् न आपके पास रथ है,और न पाँव में जूते ही है, इस भयंकर शत्रु को आप कैसे जीतेंगे ? उसके बल से वह भली-भांति परिचित था ,इस पर भगवान राम उसके प्रेम को देखकर कहते है कि -"सुनहु सखा कह कृपानिधाना ! जेहि जय होई सो स्यंदन आना !! (मानस,6/79/4 ) भगवान श्रीराम बोले ,जिससे विजय होती है वह रथ ही दूसरा है,आखिर उसका स्वरुप क्या है,? "सौरज धीरज तेहि रथ चाका ! सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका !! (मानस-6/79/5 ) शौर्य एवं धैर्य ही उस रथ को चलाने वाले चक्के (पहिये)है ,सत्य (जो तीनो कालो में अबाधित है) एवं शील (सत्य का अनुसरण )यही दोनों ध्वजा और पताका है,याद रखें ध्वज सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतीक होता है,उसके खिलाफ कोई कार्य हो ही नहीं सकता ,यदि उसके खिलाफ कोई कार्य होता है तो राष्ट्र समाप्त हो जाता है,ठीक उसी प्रकार सत्य से विपरीत कोई कार्य नही हो सकता ! " बल बिबेक दम परहित घोरे ! क्षमा कृपा समता रजु जोरे !! (मानस-6/79/6) शक्ति, विवेक, इन्द्रियों का दमन एवं परम वस्तु से हित ही घोड़े है जिनके द्वारा सही दिशा अर्थात वास्तविक गति मिलती है,क्षमा ,कृपा एवं समत्वरूपी रस्सियों में बंधकर ये घोड़े कार्य करते है ! " ईस भजनु सारथी सुजाना ! बिरति चर्म संतोष कृपाना !! (मानस-6/79/7 ) ईश्वर का भजन सुजान सारथी है,वैराग्य ही वह ढाल है,जिस पर विकारों का असर नही पड़ता ,संतोष ही कृपाण है ! " दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा ! बर बिज्ञान कठिन कोदंडा !! (मानस-6/79/८ ) दान ही परशु एवं बुद्धि ही प्रचण्ड शक्ति है,विशेष अनुभूतियों का संचार ही वह धनुष है,जिसमे प्रकृति का पहलू एक बार जितना समाप्त हुआ ,पुनः जीवित नही होता! "कवच अभेद बिप्र गुर पूजा ! एही सम बिजय उपाय न दूजा !!(मानस,6/79/10 ) ब्रम्ह में स्थित महापुरुष व उनमे जो सद्गुरु है ,उनका मन-कर्म-बचन से पूजन ही अभेद्य कवच है,इसके समान विजय का कोई दूसरा उपाय ही नही है ! 
जय श्रीहरि:
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Milan Tomic

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