जीव में एक तो चेतन परमात्मा का अंश है,और एक जड प्रकृति का अंश है,चेतन-अंश की मुख्यता से वह परमात्मा की इच्छा करता है,और जड -अंश की मुख्यता से वह संसार की इच्छा करता है,इन दोनों इच्छाओं में परमात्मा की इच्छा तो पूरी होने वाली है ,पा संसार की इच्छा कभी पूरी होनेवाली है ही नहीं,कुछ सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति होती हुई दीखने पर भी वास्तव में उनकी निवृति नहीं होती ,प्रत्युत संसार की आसक्ति के कारण नयी-नयी कामनाए पैदा होती रहती है,वास्तव में सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति इच्छा के अधीन नहीं है,प्रत्युत कर्म के अधीन है ,परन्तु परमात्मा की प्राप्ति कर्म के अधीन नहीं है,स्वयं की उत्कट अभिलाषा मात्र से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है,इसका कारण यह है कि प्रत्येक कर्म का आदि-अन्त होता है,इसलिए उसका फल भी आदि-अन्त वाला ही होता है,अतः आदि -अन्त वाले कर्मों से अनादी-अनंत परमात्मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है,?परन्तु साधको ने प्रायः ऐसा समझ रखा है,कि जैसे क्रिया की प्रधानता से सांसारिक वस्तु की प्राप्ति होती है ,ऐसे ही परमात्मा की प्राप्ति भी उसी प्रकार क्रिया की प्रधानता से ही होगी और जैसे सांसारिक वस्तु प्राप्ति के लिए शरीर-इन्द्रियां -मन-बुद्धि की सहायता लेनी पड़ती है,ऐसे ही परमात्मा की प्राप्ति के लिए भी उसी प्रकार शरीर-इन्द्रियाँ -मन-बुद्धि की सहायता लेनी पड़ेगी,इसलिए ऐसे साधक जड़ता (शरीर आदि )की सहायता से अभ्यास करते हुए परमात्मा की तरफ चलते है !...जय श्रीहरि: शुप्रभात
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