महर्षि पतंजलि के अनुसार - बुद्धि के दो रूप है,एक तो "बाहरी बुद्धि" जो श्रवण और अनुमान से होती है,इसकी अपेक्षा ऋतंभरा बुद्धि श्रेष्ठ होती है,चित्त में उभरने वाली अनन्त संकल्पों से अनन्त निर्णयों से स्मृति मिश्रित हो जाती है,किन्तु चेतन क्रियाहीन असंग पुरुष के तदाकार होने पर (स्वबुद्धि सम्बेद्नाम )बुद्धि में स्व-स्वरुप का स्वयं का संवेदन प्राप्त करता है,..दूसरे शब्दों में बुद्धि के दो रूप है,एक तो श्रवण और अनुमान से होने वाली सामान्य बुद्धि ,यही बिशुद्ध हो जाने पर योग-साधनों से अपनी बुद्धि में सवा-स्वरूप का प्रतिबिम्ब जाने वाली बुद्धि,इसके पश्चात् बुद्धि भी लय हो जाती है, ....जय श्रीहरि:
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