अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है,उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है,हम अच्छी तरह से है, परन्तु जब वे वस्तुएँ हमें मिलने के बाद फिर से बिछुड़ जाती है,तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है,कहने का तात्यपर्य है,कि पहले वस्तुओं का जो निरन्तर अभाव था,वह इतना दुखदायी नहीं था,जितना उन वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःख दायी है,ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओं का अभाव मानता है,उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है,विचार किया जाय तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है,बीच में प्रारब्ध अनुसार उसकी प्राप्ति होने पर भी अन्त में उनका अभाव ही रहेगा ,अतः हमारी तो वही अवस्था रही जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी,बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिए केवल परिश्रम ही परिश्रम पल्ले पड़ा ,दुःख ही दुःख भोगना पड़ा बीच में वस्तुओं के संयोग से जो थोडा सा सुख हुआ है,वह तो केवल लोभ के कारण हुआ है,अगर भीतर में लोभ -रूपी दोष न हो तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नही सकता ऐसे ही मोह रूपी दोष न हो तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता ,लालच या दोष न हो तो संग्रह का सुख हो ही नही सकता ,तात्यपर्य यह है,कि संसार का सुख किसी न किसी दोष से ही होता है,कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नही सकता यह लोभ उसके विवेक विचार को लुप्त कर देता है,....जय श्रीहरि:!! शुभरात्रि
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